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श्रीमती पार्वतीबाई नारायण रावजी शुक्ल

श्रीमती पार्वतीबाई नारायणरावजी  शुक्ल

1906 - 1992

गोत्र कश्यप

खरगोन जिले के भीकनगांव तहसील में खुड़गावँ नामक एक कस्बा है।वहां पर श्यामरावजी बिल्लोरे नाम से एक  पटवारीजी थे।अच्छी खासी जमीन के मालिक थे।आसपास के गांवों में उनकी धाक जमी हुई थी।उनकी तीन पुत्रियाँ और एक पुत्र थे।

उनकी सबसे बड़ी बेटी का नाम पार्वती बाई था।इनका जन्म सन--1906 में हुआ था।इनकी माता का नाम जमनाबाई था।इनके पिता श्यामरवजी अपने तीन भाइयों में मंझले थे।तीनों भाइयों के संयुक्त परिवार में पार्वती बाई सबसे पहली संतान थी।स्वाभाविक था कि बड़े लाड़ दुलार में बचपन बीता।मुँह से निकलते ही हर बात पूरी हो जाती थी।काका,ताऊजी ने भी हर ख्वाहिश पूरी की।संयुक्त परिवार की यही विशेषता रहती है कि बच्चों को भरपूर प्यार मिलता है।पार्वती बाई ने बहुत कुशाग्र बुद्धि पाई थी।लेकिन यह वह जमाना था कि बेटियों की शादी जल्द ही कर देते थे।एक बार पास ही के गांव में,खरगौन के कथावाचक पण्डित नत्थूलाल जी शुक्ल सात दिवसीय भागवत करने के लिये आये थे वहाँ पर उन्होंने इन बालिका को देखा,अच्छा घर परिवार देखकर बालिका के पिता श्री श्यामरावजी से बात करी और अपने बेटे श्री नारायणरावजी के साथ उनकी बेटी का रिश्ता पक्का कर दिया।इस तरह आठ साल की उम्र में ही इनकी सगाई हो गई।अच्छे घर परिवार में और पढ़े लिखे लड़के के

 साथ अपनी बेटी का रिश्ता होने से बिल्लोरे परिवार में बहुत खुशी का वातावरण हो गया।

लेकिन विधाता का ऐसा लेखा रहता है जो कोईं भी पढ़ नहीं पाता है।इस हँसते खेलते परिवार को एक साल बाद ही ऐसा क्रूर झटका लगा कि पार्वतीबाई के पिता का असमय ही निधन हो गया।अकस्मात ही इतना बड़ा आघात लगा कि परिवार वालों को अपने आप को सम्हालना मुश्किल हो गया।बेटी पार्वतीबाई को तो इतनी कम उमर में ही पिता का इतना प्यार मिला था जिसे वे याद करके मन ही मन मे कुढ़ती रहती थी।लेकिन होंनी तो हो चुकी थीं।पार्वतीबाई की सगाई हो गई थी इसलिये शादी भी करनी ही थी।ग्यारह साल की उम्र हुई कि शादी हो गई।शादी होकर पार्वती बाई खरगोन,श्री नत्थूलालजी शुक्ल के यहाँ श्री नारायणरावजी की पत्नी बन कर,ससुराल आ गये।बाल मन में डर,संकोच झिझक,घबराहट थी,लेकिन घर के अंदर जब प्रवेश किया तब!!!द्वार से ही भगवान मुरली मनोहर के दर्शन करके, सासजी के द्वारा वहीँ मन्दिर में ही सारी रस्में पूरी करते समय ही मन में एक भाव आया कि ये तो मन्दिर है!हे ईश्वर, कान्हा जी जब आप मेरे साथ में रहोगे तो मुझे अब किसी भी बात की चिंता या घबराहट नहीं होगी और फिर उन्होंने अपने आपको ईश्वर के चरणों में समर्पित कर दिया।

 जैसा कि वे हमेशा कहा करते थे कि मैंने तो सब कुछ सांवरिया,मुरली मनोहर पर छोड़ दिया है, वो जो कुछ भी करेंगे अच्छा ही करेंगे।बस ये मेरा सौभाग्य था कि रोज सुबह उठते ही राधाकृष्ण के दर्शन हो जाते थे।

राधाकृष्ण मन्दिर की विशेष बात यह है कि कृष्ण की प्रतिमा के बांयी तरफ राधा जी की प्रतिमा है और दांयी तरफ कुब्जा की प्रतिमा है।इस विशेषता के कारण इस  मंदिर की दूर दूर तक प्रसिद्धी है।

पार्वतीबाई का संयुक्त परिवार था।सास ससुर, जेठ-जिठानी,देवर देवरानी और एक स्वर्गीय ननद की तीन लड़कियां भी सब साथ में ही रहते थे।मन्दिर में आये दिन धार्मिक आयोजन होते रहते थे।

समय के साथ साथ सभी भाइयों के अलग अलग मकान हुए और इनका निवास बाद में ब्राह्मण पूरी में हुआ।ये पांच बेटियाँ और एक बेटे की माता बनी।बेटियों को इन्होंने इतनी शिक्षा दी कि  वे अपने पैरों पर खड़ी हो सके।खुद न पढ़ पाने की कसक हमेशा रही वह उन्होंने अपनी बेटिंयों को पढ़ा कर पूरी की।नाती पोतों से भरा पूरा परिवार था,हरएक के लिये भरपूर प्यार था।बच्चों को तो इतना लाड़ कि जिसको जो पसन्द हो वही बनाकर खिलाना।

ऐसा कोई काम नहीं,जिसमें ये दक्ष न हों।

पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेदारियों का भी बखूबी निर्वहन किया।परिवार में या कहीं पर भी शादी विवाह हो इन्हें आगे करके सब रस्म रिवाज पूछे जाते थे।मायके में भी बड़ी बहन होने के नाते सब की फिक्र करते थे।वक्त जरूरत पड़ने पर  फौरन हाजिर होकर समाधान कर देते थे।बड़ा ही  जीवट किस्म का व्यक्तित्व था। पिता की कमीं हमेशा खली,जब तब पिता को याद करके आँखें भर आती थी, वे कहा करते थे कि उनके  पिता बहुत प्यार करते थे।यादों के फेहरिस्त बहुत लंबी है।

ऐसी ममतामयी मूरत हमेशा आँखों के सामने आ जाती है।

एक भरे पूरे परिवार में रहने का बहुत सुख भोगा,सब को देखकर बहुत खुश होते थे।पति श्री नारायणराव जी का स्वर्गवास सन 1989 में हो गया था।मन विचलित रहने लगा था।वे मुरली मनोहर से प्रार्थना करते थे कि प्रभु मुझे जब भी ले जाना ग्यारस को ही ले जाना,और जैसे ईश्वर ने उनकी सुन ली हो।

इनका स्वर्गवास 31--1--1992 तिथि से माघ मास की षटतिला एकादशी के दिन ही हुआ।

यादों के झरोखे में बहुत कुछ है कहने सुनने को।क्योकि मैं तो जब से शादी करके ससुराल आई इन्होंने ही मुझे पहली बार अपनी गोद में बिठाया,अपने आँचल में सहारा दिया।भले बुरे का ज्ञान कराया।गृह

कार्य सिखाया।जिंदगी की ऊंच नीच से अवगत कराया।मैं भी इनके अंत समय तक इनके साथ ही रही।अपनी जन्मदात्री माता से ज्यादा इन धर्ममाता के साथ रही।जिन्होंने मुझे किसी लायक बनाया।

मैंने भी इनकी बहू बनकर भरपूर प्यार पाया।

श्रीमती प्रभा शुक्ला, खरगोन

2 comments:

  1. नानी शब्द ही दुनिया मे न्यारा है माय ने सबको खूब प्यार किया , अक्सर श्रावण में ओम्कारेश्वर रहती थी, इंदौर भी गीता भवन के प्रवचन सुनने आती थी, अक्षरों से अनपढ़ थीं पर पैसों का हिसाब अच्छे से कर लेती थीं।
    नारमदेव परिवार की ओर से हार्दिक श्रद्धांजलि।

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  2. म्हारी माय को नाम थो तारु
    आरु मोहन भाई की माय को नाम थो पारु
    तारु पारु की जोड़ी थी ।
    स्व. माताजी एवं बड़ी मौसीजी को उनके श्री चरणों में दोनों परिवारों की ओर से साष्टांग चरण स्पर्श
    -राधेश्याम शर्मा

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