हमारे परदादा (स्व.) पू.श्री राजारामजी बक्षी पैतृक गाँव - फूल पिपल्या (खंडवा, म.प्र. के पास हरसूद रोड़ पर) के निवासी रहे, जिनकी एकमात्र संतान हमारे दादाजी (स्व.) पू. श्री रामकृष्ण बक्षी थे जिन्हें हम सब "बाबूजी" कहते थे! बाल्यावस्था में ही माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् इनका लालन-पालन इनकी नानीं ने किया जो उस समय नर्मदा किनारे स्थित ओम् कारेश्वर मंदिर के पास ही रहती थी और "भोगण माय" के नाम से प्रसिद्ध थी, चूंकि ओम् कारेश्वर भगवान को प्रातःकाल सबसे पहले भोग "प.पू. नानीजी" ही लगाती थी |
इसीलिए सब उन्हें "भोगण माय" कहते थे! पारिवारिक चर्चा में हमें यह भी ज्ञात हुआ कि वर्तमान में जो दिक्षित परिवार "ओम् कारेश्वर भगवान की सेवा में कार्यरत है इनकी "परदादी" और "भोगण माय" सगी बहनें थी!ओम् कारेश्वर में बाल्यकाल के पश्चात युवावस्था में आगे की पढ़ाई के लिए पू. दादाजी कुछ समय "गुरुकुल" धार, म. प्र. में भी रहे इसके बाद वे "इंडियन डेयरी डिप्लोमा" करने बैंगलोर चले गये एवं डिप्लोमा पूर्ण होने के बाद केंद्र सरकार द्वारा शासित डेयरी में उनकी नौकरी लगी, डेयरी में उत्तरोत्तर पदौन्नत होते हुए वे देश के विभिन्न प्रांतों में रहे जिनमें लेह-लद्दाख,धर्मशाला, गुरुकुल कांगड़ी, दिल्ली, अलीगढ़, शिवपुरी, यवतमाल आदि!
गौ - पालन में पू. दादाजी की अत्यधिक रुचि थी और वे हमेशा सबसे कहते थे कि एक गाय एक परिवार को पाल सकती है! सेवा निवृत्ति के पश्चात उन्होंने स्वयं अपने राजेन्द्र नगर स्थित निवास पर एक गाय पाली थी जिसका सारा कार्य वे स्वयं करते थे!
हमारे दादाजी की दिनचर्या नियमित रही प्रातःकाल समय से उठना, चाय-नाश्ता, भोजन और वे पूरे दिन स्वयं को बहुत व्यस्त रखते थे! वे स्वयं स्वावलम्बी थे और अपनी युवावस्था में तो अखाड़े में जाकर कुश्ती भी लड़ी उन्होंने, दिन में शयन करना उन्हें बिल्कुल भी पसंद नहीं था!
किताबें पढने में भी उनकी रुचि थी विशेषकर अध्यात्म और दर्शन शास्त्र, अंग्रेजी भाषा पर भी उनका समान अधिकार था और वे हमेशा अंग्रेजी किताबों में से कठिन शब्द (Hard Words) का डिक्शनरी में अर्थ देखकर लिख लेते थे!
जीवन पर्यंत कर्मठ योगी रहे पू. दादाजी "बाबूजी" ने दि.15 फरवरी 2001 को अपना भौतिक शरीर त्याग कर सूक्ष्म शरीर धारण किया!
(आनंद बक्षी )
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ramkrishna baxi,
मैने सन 1989 में अमरनाथजी के दर्शन किये थे, उसके बाद एक बार पिताजी के साथ फूफाजी (आ. रामकृष्णजी बक्षी ) से मिलना। हुआ, और उन्होंने बताया कि वो 1939 में अमरनाथ गए थे और तब कितना अधिक दुष्कर और दुर्गम था अमरनाथ गुफा तक पहूंचना। आज तक वो दास्तां और सुनाने का अंदाज याद है।
ReplyDeleteएक सच्चे गोसेवक और सक्रिय ऊर्जा के धनी को हार्दिक श्रद्धांजलि।
-रवि नारमदेव