स्व. प्रोफेसर डॉ. विजयेन्द्र रामकृष्ण शास्त्री, ज्योतिष के मूर्धन्य विज्ञान एवं होल्कर स्टेट के विद्वत परिषद के आदरणीय आचार्य पं. रामकृष्ण शास्त्री के ज्येष्ठ पुत्र थे। डॉ. शास्त्री ने स्नातकोत्तर शिक्षा इंदौर से प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए उत्तीर्ण की। माध्यमिक शिक्षा मंडल की परीक्षा श्री वैष्णव स्कूल के प्रथम मेरिट विद्यार्थी के रूप में उत्तीर्ण की थी। होल्कर महाविद्यालय से रसायन शास्त्र विषय में एम.एससी. प्रथम स्थान के साथ उनीर्ण को और छात्रसंघ के निर्विरोध अध्यक्ष भी रहे। खेलों में भी सदैव उत्कृष्ट प्रदर्शन किया। समस्त कठिन योगासन वे सहजता से कर लेते थे। डॉक्टरेट उपाधि कालांतर में विक्रम विश्वविद्यालय से प्राप्त की। सन् 1964 से उज्जयिनी की कर्मस्थली के रूप में चुनकर यहीं के होकर रह गए।
भगवान महाकाल की नगरी के लिए उन्होंने कई उपलब्धियां प्राप्त की। भारतीय विज्ञान इतिहास गए एवं दर्शन परिषद नामक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के संस्थापक व आजीवन मानद महासचिव रहे। इसके माध्यम से विक्रम विश्वविद्यालय का नाम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा। नोबेल पुरस्कार विजेता डॉ. हरगोविंद खुराना, के मंत्री के प्रोफेसर फोरबेस, प्रख्यात मनोचिकित्सक डॉ. ए.वी. खुराना, यूजीसी चेयरमैन डॉ. आर.सी. मेहरोत्रा, कलकत्ता के आचार्य एस.ए. आदित्य, केमिकल सोयासटी के चेयरमैन डी पी. चक्रवर्ती, डॉ. असीमा चटर्जी प्रसिद्ध वास्तु विद सोमपुरावाला आदि आपके प्रयासों से उज्जैन पधारे और व्याख्यान दिए।
महर्षि महेश योगी ने "वेद विज्ञान पंडित" की उपाधि स्वयं उन्हें प्रदान की थी। ओशो रजनीश का सान्निध्य भी उन्हें प्राप्त हुआ था। उनका जीवन एवं ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के संबंध में "अज्ञेयता सिद्धांत" को
विश्व विख्यात वैज्ञानिकों ने स्वीकार किया था और कुछ ने नोबेल पुरस्कार हेतु नाम प्रस्तावित भी किया था। आचार्य शास्त्री अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई विशेषज्ञ समितियों के सदस्थ थे। फ्लाइट स्कॉला एक्सचेंज कार्यक्रम में एकमात्र विद्वान मान्य होकर भारत सरकार द्वारा अमेरिका के अतिथि के रूप में एक वर्ष की अवधि हेतु कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में सौर ऊर्जा पर शोध हेतु चयनित हुए थे।
उज्जैन के नए उपनगरों एवं मार्गों के नामकरण का श्रेय उन्हें ही जाता है। (जैसे ऋषिनगर, पंतनगर, वेद नगर, भरतपुर आदि) महाकालेश्वर मंदिर के नवीनीकरण एवं परिवर्तन के सूत्रधार आप ही थे, को तत्कालीन संभागायुक्त एस.के. शर्मा के प्रयासों से मूर्तव्य ले सका।
हरसिद्धि मंदिर के गुम्बद में देवी के तांत्रिक स्वरूपों का चित्रण उन्हीं की परिकल्पना थी पदमश्री श्री वाकणकर, डॉ. रेवाड़ीकर, डॉ. भागवत, डॉ. हरस्वरूप जैसे विद्वानों के साथ आपकी विद्ववत गोष्टी प्रायः होती थी। शास्त्रीय संगीत के छोटे बड़े कार्यक्रमों में भागीदारी एवं उनकी विशिष्ट उपस्थिति कार्यक्रमों को गरिमा प्रदान करती थी। उजैन के गौरव डॉ. भावसार ने आचार्य शास्त्री की सरस्वती की वदिक, तांत्रिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप की परिकल्पना को प्रतिमा के रूप में ढाला, जो रसायन अध्ययनशाला में स्थापित है।
डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन के शब्दों "जब साधक साधना करते-करते साध्यमय हो जाता है तो वह संस्कृति बन जाता है ।" शास्त्रीजी संस्कृति बन गए हैं।
थियोसोफिकल सोसायटी में दर्शन विषय पर व्याख्यान देना और सुनना उनका शौक था। शिक्षा के क्षेत्र में उनकी शिक्षा सदेव संस्कृति के पोषण एवं संवर्धन रही। अतः शासकीय शालाओं के अतिरिक्त लोकमान्य तिलक, सरस्वती शाला, ज्ञानपीठ विद्यालय आदि में व्यासपान देने प्रापः जाते थे । आप सुमन मांटेसरी स्कूल के संस्थापक प्रथम पांच सदस्यों में से एक हैं। परम्परावादी परिवार होते हुए भी बहु की योग्यता परखते हुए उसे उज्जैन की अग्रणी स्कूल में अध्यापन कार्य हेतु प्रेरित भी किया और अनुमति दी।
आचार्य शास्त्री ने निर्धन पीड़ितों और असहायों के लिए सदैव सनम कार्य किये। मार्गदर्शक पुस्तकों का निःशुल्क वितरण वे आजीवन अंतिम सांस तक करते रहे। वे उदार व दानशील प्रवृत्ति के थे। आपके सरल एवं निश्छल व्यक्तित्व की छाप हर कोई व्यक्ति पर पड़ी, जो उनके किंचित संपर्क में भी आया। सत्यप्रियता उच्च पद पर आसीन रहते हुए ईमानदारी, प्रत्येक कार्य शुचिता, अधीनस्थों पर दया करणा, सबके सुख-दुख में सम्मिलित होना तथा यथा संभव महायता करना इत्यादि सदगुण उनके स्वभाव के अंग थे।
ऐसे महामना को मेरा कोटिशः नमन् ।
-लोकेन्द्र वि. शास्त्री
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vijyendra shastri
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