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श्री शंकरलाल जी चतुर्वेदी ढकलगांव

जन्मतिथि 08,-10-1918 - पुण्यतिथि 16 दिसम्बर 2007
पैठन्यं गौत्र 
ढ़कलगांव निवासी श्री देवारामजी चतुर्वेदी की पांच सन्तान थी। तीन बेटे एवं दो बेटियाँ। श्री शंकरलाल जी मंझले बेटे थे। इनका जन्म 08,-10-1918, तिथि से अश्विन माह में । नवरात्रि की दूज के दिन। देवी माता की विशेष कृपा थी।इनकी माता का नाम तुलसां बाई था।बचपन इसी गांव में बीता।प्राथमिक तक की शिक्षा भी ढ़कलगावँ में ही हुई। अपने ही गावँ में शिक्षा के अभाव में इसके बाद की पढ़ाई के लिये पास ही सनावद  नाम से गांव है जो कि टप्पा कहलाता था । वहाँ पर रहकर पढ़ाई की।मिडिल तक की पढ़ाई सनावद रहकर की। इसके बाद फिर वही समस्या आई।सनावद में मिडिल तक ही स्कूल थी,आगे की पढ़ाई के लिये खरगोन जाना पड़ा।हाई स्कूल खरगोन में रहकर किया।अपने हाथ से भोजन बनाना, सारा कार्य भी खुद करना,कुछ दिन ट्यूशन भी की।इस प्रकार हाईस्कूल पास की, फ़र्स्ट डिवीजन हॉसिल किया।उस समय खरगोन सरकारी हाईस्कूल में फर्स्ट डिवीजन वाले विद्यार्थियों के नाम बोर्ड पर लिख कर स्कूल में टांग दिये जाते थे।यह नियम कुछ सालों तक चलता रहा।फिर बन्द कर दिया गया।लेकिन बोर्ड नहीं हटाये गये।आज तक टँगे है।उनमें से एक बोर्ड पर आज भी श्री शंकरलालजी चतुर्वेदी का नाम लिखा हुआ है *अमिट* है।
इसके उपरांत फिर वही बात सामने आई कि आगे की शिक्षा खरगोन में उपलब्ध नहीं होने से इंदौर जाना पड़ेगा।लेकिन अब आपने अलग लाइन चूनी,।मुम्बई जाकर कुछ  करने का विचार किया,अपने छोटे भाई को भी बुला लिया।कुछ ही दिन मुम्बई में रहे,एक दिन पेपर में फारेस्ट विभाग की विज्ञप्ति देखी डिप्टी रेंजर पद के लिये। आपने फार्म भर दिया।इंटरव्यू हुआ।उसमें पास हुये।ट्रेनिंग के लिये बालाघाट बुलाया।आप मुम्बई से बालाघाट पहुँच गये जबकि छोटे भाई को मुंबई इतना रास आया कि वे जीवनपर्यंत तक वहीं रहे।इस प्रकार फारेस्ट विभाग में डिप्टी रेंजर और फिर रेंजर के पद पर पदस्थ रहे।सरकारी महकमे में होने के कारण कई गांवों,शहरों में रहे।रतलाम,बाग, धार,सोहागपुर, बलवाड़ा,नेपानगर,सेंधवा,खरगोन, रतलाम में दो बार तबादला हुआ।
कई जगहों के अनुभव रहे,फारेस्ट के रोचक वर्णन भी उनसे सुनने को मिलते थे।कभी कभी विषम परिस्थितियां भी निर्मित हो जाया करती थी।
उस जमाने घने जंगल हुआ करते थे,टूर पर जाने के लिये जीप भी मिलती थी,लेकिन जहाँ जीप ना जा पाए वहाँ बैल गाड़ी से रास्ता पार करना पड़ता था।बैलगाड़ी की व्यवस्था गावँ वाले कर देते थे।कभी तो पैदल भी जंगलों में चलना पड़ता था।पैदल भी जाना पड़ता था।
 ऐसे ही एक वाकया उन्होंने बताया था, कि एक बार वे।जंगल मे घूमकर पेड़ो पर निशान लगवाने का काम करवा रहे थे,साथ में दो अधीनस्थ भी थे चलते चलते थोड़ा आगे निकल गए, साथ वाले पीछे छूट गये।जंगलों में पगडंडी भी नहीं थी अंदाज से जाना आना था,ऐसे में क्या देखते है कि एक भील आदिवासी जिसने चोरी से लकड़ी काटकर गाड़ी भर रखी थी,अपनी पत्नी के साथ जा रहा ऑफिसर को देखकर गाड़ी तेज भगाने लगा,रेंजर साहब ने देखा तो दौड़कर उसे पकड़ लिया,अधीनस्थ कहीं पीछे छूट गये थे अकेले ही उस भील से जूझ रहे थे,इतने में क्या देखते है कि उस भील पत्नी ने तीर कमान उठाया और साहब के ऊपर तान दिया,साहब ने हिम्मत से काम लिया और उस भील को ही भील पत्नी के सामने अड़ा दिया,जैसे जैसे वह औरत पैतरे बदलती वैसे  वैसे रेंजर साहब भी उसके पति को सामने अड़ा देते।इसी कशमकश में करीब आधा घण्टा उन दोनों को सम्हाले रखा, फिर उनके साथ के फारेस्ट गार्ड आ गए और उन दोनों को लकड़ी की गाड़ी समेत पकड़कर ले गए।एक बार  जंगल में थे,शेर की आवाज सुनी,ये अच्छा हुआ कि आवाज दूर से आ रही थी,तब उन्होंने अपने अधिकारियों को कह सुनकर बन्दूक चलाना सीखा,लाइसेंस मिला,और बंदूक खरीदी,फिर बंदूक भी साथ रखने लगें।ये सभी बातें उन्ही की जुबानी सुनी थी।
रतलाम में पदस्थ थे तब  " थियोसोफिकल सोसायटी ऑफ वेदांत लॉज " की सदस्यता ग्रहण करी थी और व्रत लिया था कि कभी भी झूठ नहीं बोलेंगे,बेईमानी का पैसा नहीं कमाएंगे और जीवन पर्यंत निबाह किया।
परिवार---आपकी पत्नी का नाम लीला बाई था जो कि सनावद के श्री रामकृष्णजी दफ्तरी की बेटी थी।आप दिखने में सुडौल कद काठी के, गोरे चिठ्ठे आकर्षक व्यक्तित्व लिये हुये थे। आपके दो बेटे और तीन बेटियाँ थी। बच्चों के सम्बंध अच्छे सुसंस्कृत परिवारों में हुए थे।वे इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि मानते थे।अपनी बच्चों और उनके परिवारों की प्रति आप निश्चिन्त थे।
वह जमाना सयुक्त परिवारों का था। अपने भाइयों और अपनी संतानों को हमेशा एक समान समझा।बहन बेटियों के यहाँ भी शादी विवाह के अवसरों पर बढ़कर सेवाएं दी।आपकी एक बुआजी और दो बहनें किस्मत की मार कहे या विधाता का लेख,इन्ही के यहाँ रह कर जीवन गुजरा,आपने और इनके भाइयों ने सबको स सम्मान रखा।उन्हें कभी आंच न आने दी।परिवार में उन्हें अपने से सब छोटे कोई रेंजर काकाजी,रेंजर दादाजी तो किसी के रेंजर मामाजी थे।परिवार में सभी बहुत मान सम्मान देते थे।छोटे बच्चे का नामकरण करना है तो इन्ही के द्वारा होता था,कहीं लड़की देखने जाना है,शादी विवाह तय करने है तो आप और आपके दोनो भाइयो में इतना प्रगाढ़ प्रेम था कि हमेशा एकमत रहकर सारे काम सम्पन्न करते थे।आपके परिवार में बहुत एकता थी और सबके लिये मिसाल थी।
58 साल की उम्र तक फारेस्ट विभाग में रहकर देश की सेवा की,फिर नेपानगर में एस. डी. ओ.के पद से रिटायर हुये।और अपना निवास स्थान सनावद बनाया।अपने समकक्षों के साथ रोज शाम को सत्संग करना, ईश्वर आराधना करते हुये जीवन बिताया।जीवन के आखरी  बारह चौदह साल अपने बेटे बहुओं और प्यारे प्यारे पोते पोतियों के साथ भोपाल में रहकर बिताये। निधन के चार साल पहले ही आपकी पत्नी श्रीमती लीला बाई का स्वर्गवास हो गया था। 
आपका स्वर्गवास 16 दिसम्बर 2007 में तिथि से पौष कृष्णपक्ष की सप्तमी को हुआ था।

ऐसे प्रभावशाली व्यक्तित्व को अश्रुपूरित नमन 
🙏🙏

मैंने इन महान हस्ती को बहुत पास से महसूस किया है।इनके आदर्शो को अपने जीवन मे उतारने का प्रयास किया है।
इनका लाड़ प्यार ममत्व सबसे ज्यादा मैने ही प्राप्त किया है।
इनकी सबसे बड़ी सन्तान के रूप में

( श्रीमती प्रभा मोहन शुक्ल )

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shankar lal chaturvedi dhakalgaon

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